Monday, July 22, 2013

राह के दरख्त

मन के लिए सबसे सुखद एहसास है राह चलते उसको शीतलता देने वाला एहसास । कोई जो उसके सफर की थकान को मिटा सके ।ऐसे में सबसे सुगम ख्याल राह के उस दरख्त का आता है जो आप का अनायास ही इंतजार कर रहा हो । मानो उसने अपनी आगंतुक पुस्तिका में एक और नाम बड़े ही आत्मविश्वास के साथ जोड़ लिया हो । आप और हम इस दरख्त को देखते हैं पर उसकी समस्त विशाल आकृति के अमूर्त रूप को अपने मन में रख कर इतिश्री कर लेते हैं । वह वृक्ष वैसे तो हमारी तारीफ का मोहताज नहीं है पर फिर भी मौन भाव से आप से अपने आनंद की अनुभूति को बांटने के लिए मन में एक इच्छा लिए हुए है । हम देखते हैं कि वह सन्निकटता से हमारे पास खड़ा है और ऐसे जता रहा है कि वह आपकी उपस्थिति में अनुसूया की तरह है । पर जिस प्रकार उसके नीचे शीतल वातावरण को वह निरंतर आप पर अनश्वर भाव से बनाये हुए उससे मन में यह भाव जग ही जाता है कि आखिर यह पेड़ हमसे कुछ तो चाहता है । कुछ तो है जो इसके मन मे चल रहा है । क्या बात करूं इससे जो यह मुझे अपने भाव से मोक्षमयी बना दे । पर नहीं यह वृक्ष तो बस मन ही मन आप से संप्रेषण करने को वचनबद्घ है । कुछ देर और रुक जाओ, चलना तो सारी जिंदगी है। यह विचार उसके तने पर सिर को पीछे की ओर आसरा लेने के लिए प्रेरित करता है । और हम मानो उसकी मनुहार के आगे द्रवित हुए उसका आग्रह स्वीकार कर लेते हैं । परोपकार में शीतल हवा का झोंका जैसे आपकी इसी मुद्रा का ही इंतजार कर रहा हो, छूते हुए यों निकल जाता है, जैसे कि पेड़ से हमारे मन को कलावे से बांध रहा हो । शायद कोई मनौती ही मांग लूं, क्या ये मेरे सफर को हमसाया देदे । पर जो खुद के साये से मेरे जीवन क्षणों को सुखानुभूति से सींच रहा हो, उसके सामने यह एक लालचभरी अभीव्यक्ति होगी। तो क्या ऐसा है जो मेरे जाने के बाद भी मेरे और पेड़ के बीच रहेगा । कुछ भी तो नहीं । मैं निकल जाउंगा, और ये भी फिर इंतजार की मुद्रा मे आ जाएगा । नहीं नहीं कुछ ऐसा नहीं हो सकता क्या कि इसको इस भाव से मुक्त किया जा सके । क्यों ये और इंतजार करे, बस और नहीं । हमारे बीच कुछ तो ऐसा हो कि जो शाश्वत और चिंरजीव रहे । तभी अचानक आसमान में बादल घिर आए और देखते देखते ही छमछम पानी बरसने लगा ।मैने तुंरत अपना छाता निकाल लिया पर राह में बरसते पानी के कम होने का इंतजार वही पेड़ के नीचे करने लगा । और फिर बारिश थमने के बाद इस ख्याल पर अर्धविराम लगा कर चलने कि तैयारी करने लगा । मैने अपना छाता समेटने के लिए ज्यों ही नीचे किया । तभी हवा के एक झोंके ने पत्तियों पर रुके पानी को ऐसा झकझोरा की सारा का सारा मेरे ऊपर ही आ गिरा । सिहर कर मैने उपर देखा तो एक बूंद आंख में आकर गिरी । समझ गया पेड़ से रिश्ते का संवाद ।

Monday, December 24, 2012

सजनी- एक प्रेम गीत

क्या देख रही हो सजनी,
कि प्रेम कितना गहरा है मेरा ।
क्या मन में चल रहा है सजनी,
कि प्रेम कितना गहरा है मेरा ।
क्या दिल में बसा है सजनी,
कि प्रेम कितना गहरा है मेरा ।

जब तुम्हारी आखों में आँखें डालकर देखता हूं, सजनी,
सागर की सारी लहरें आरपार हो जाती हैं ।
जब तुम्हारे चिबुक को एकटक देखता हूं, सजनी,
जीवन के सारे रसों का आनंद भर आता है ।
जब तुम्हारे केशों को देखता हूं, सजनी,
उन की छाया में मन इंद्रजीत हो जाता है ।
प्यार ही प्यार भरा है तुम्हारे उरोजों में, सजनी,
उनके तले जीवन में निश्चिंत भाव से सुःखनिद्रा में,
सो जाने को मन करता है ।
हर पल जीवंतता का एहसास तुम्हारे ख्याल से बना रहता है, सजनी ।
सजनी, मेरी सजनी, क्या मेरे मन की बात तुम तक पहुंच रही है ।

Monday, December 10, 2012

दो पात पर

जीवन में चींटी के अनेक उदाहरण पेश किए जाते हैं कि देखो उससे सीखो, वह हिम्मत नहीं हारती है । उसका जीवन सारा समर्पण भाव को दर्शाता है । पर एक दिन मैने यूं ही घर के पास से बहने वाले पानी की ओर रुख किया । उसकी ध्वनि मुझे आकर्षित कर रही थी। मैं क्या देखता हूं कि एक चींटी जैसे तैसे एक पत्ते पर चढ़ी हुई चारों ओऱ से निकलने के रास्ते खोज रही थी । उसकी जान तो पत्ते पर बच गई थीं, पर उसका उद्देश्य इससे आगे जमीन पर आना था ताकि वो जीवन के पथ पर आगे बढ़ सके । ये देख कर मैं भी रुक गया कि देखें वह आगे क्या करती है । मैने देखा कि पास ही से एक दूसरा पत्ता बहता हुआ आया और उस चींटी के पत्ते के साथ अटक गया । चींटी लपक कर आगे बढ़ी और उस पत्ते की ओर जाने लगी । वो पत्ता किनारे को कुछ पास ले आया था । चींटी ने शायद आगे के दोनो पैर भी उस पत्ते पर रख दिए थे । परंतु सहसा वह पीछे की ओर हट गई और फिर से पहले पत्ते पर से निकलने के रास्तों के लिए मुआयना करने लगी । मैं सोचने लगा कि उसने क्यों नहीं उस पत्ते को छोड़ा । आखिर दूसरा पत्ता ज्यादा बड़ा औऱ किनारे नजदीक था । और हो ना हो वह जरुर किसी किनारे लगता । तभी देखा कि पहला पत्ता छिटक कर हट गया औऱ पानी में उलटा हो गया । चींटी पानी में तैर रही थी औऱ उसके पास बचने के लिए कोई उपाय न था । मुझे लगा कि जीवन की लाचारी इससे ज्यादा औऱ कुछ ना हो सकती कि आपके पास मौका हो औऱ आप उसे जाने दो । शायद ऐसे मे चींटी का डूब जाना मात्र नियति भर ही थी । कभी कभी हमे लगता है कि एक अवसर ऐसा है कि शायद जिसका हम जीवन भर से इंतजार कर रहे हैं । औऱ जब वह सामने होता है तब एकदम से विमोह की स्थिति हो जाती है । लगता है कि ये अब मेरे जीवन में सरोकार नहीं रख रही है । औऱ मन दुःखी तो होता ही है पर सबसे बड़ी पीड़ा इस बोध से होती है कि जीवन का निर्बाध बहना अवसरों के महत्व का आधार है ना कि अवसरों का होना । यदि आपको किसी वस्तु की मांग है औऱ वह नहीं है तो उसके विकल्प ही सबसे बेहतर अवसर हैं । जो समय के साथ मिल गया उसे भाग्यशाली होने का प्रमाण माना जाए । जीवन में अनेकों ऐसे अवसरों पर प्रयास का महत्व बढ़ जाता है । पर प्रयास तो अवसरों का मुआयना मात्र ही है । प्रयास से अवसरों का हासिल होना जुड़ा नहीं है । वो तो जभी छलांग लगाई जा सकती है जब जीवन में कोई दैवीय हाथ मदद के लिए आगे बढ़ा हो । और फिर उस डूबती चींटी को मैंने दूसरे पत्ते के सहारे पानी से बाहर निकालकर रख दिया ।

Sunday, December 02, 2012

तंग इंसान की खुली खिड़की से दिखता आसमान

मन भी विचित्र है । जहाँ तरह तरह के रंग दिखाई देते हैं तो काले रंग की खूबसूरती का बखान करने लगता है । जब काले रंग से रूबरू होता है तो सफेद रंग के साये तले अपने वजूद की दलील देने लगता है । और जब सफेद रंग के साये मे झलकता है तब उसे रंगों की तलब हो उठती है । क्या करें इस मन का । कोई इसे भी समझे । क्यों हम पानी भरे गुब्बारे की तरह हाथों से सरकना चाहते हैं और ये भी लगता है कि कहीं से पकड़ ढीली ना हो जाए क्योंकि जमीन पर गिरते ही मालूम है कि क्या हाल होने वाला है । इस पानी के गुब्बारे सा मन का नाजुकपन क्या कहना चाहता है । हमें क्या चाहिए ? हमें ऐसे दो हाथ चाहिए जो साथ जुड़कर दोने (टोकरी ) की तरह हों और जिसमें मन का गुब्बारा हिलता डुलता रहे बेफिकर । इतनी सुरक्षा भरे हाथ कहाँ मिलें । और जो जीवन के बोध में ही अबोधता का भाव डाल दें । इस हद तक डाल दें इसके वजूद की एहसास सिर्फ उसके हिलने डुलने मे ही रहे ना कि गुब्बारे बने रहने में । ये सारी बातें एक उदारणार्थ नहीं कही जा रही हैं । जीवन का निरंतर बहते रहना उसके स्त्रोत की ओर ध्यान खींचता है औऱ फिर उसके अंत की ओर । ये आरंभ और अंत का साम्यक बोध वर्तमान के संघर्षों को भी जटिल बना देता है । मानव जीवन ऐसे मे क्या ढूंढता है एक ऐसी संजीवनी बूटी जो उसके इस कष्ट को हर ले । क्या वाकई कोई ऐसी बूटी है । मेरा बार बार सहज उत्तर होता है यदि प्रेम की ताकत भी इस चुनौती को नहीं ले सकती है तो जीवन में और क्या है । लगता है प्रेम का पलड़ा पहली बार हलका पड़ने लगा है । तो क्या इसका उत्तर मोक्षदायी वो सभी बातें जो धर्म पुराणों में लिखी गई हैं । क्या है इस पहली का हल । या सिर्फ मृत्युबोध के साथ शुतुर्मुर्ग की तरह हम सब जाने का इंतजार कर रहे हैं । अरे नहीं ये तो बहुत बड़ी त्रासदी होगी मानव जीवन के साथ जो ब्रह्मांड में जीवन और चेतना का सिर्फ एक मात्र साक्षी है । ये श्रेय तो हम तो बाकि प्रकृति को भी नहीं दे सकते । तो फिर क्या है जो जीवन में जीवन का आधार है वरना तो कबीर की धोकनी से ज्यादा हम कुछ भी नहीं है । कमल की पत्तियाँ बंद होने लगती हैं और भँवरा उसमें सो जाता है । ऐसा लगता है कि जीवन के नियम में नियति भी निहित होती है । तो फिर क्या किया जा सकता है, एक मौलिक परिवर्तन की जरूरत है । जिस चीज से सबसे ज्यादा खुशी मिलती है, और जो सबसे सामयिक खुशी का कारण है उसे उस समय का नियम बना लो । बस उसे आदत बना डालो । उसे रोज करो बार बार करो । पूरी निर्भीकता से साथ करो । और इतना करो कि खुशी के आंसू मन मे छलक आएं । आपको मेरा प्यार !

Tuesday, February 14, 2012

वेलनटाईन डे

तकलीफ से भरा मन एक ढहते ताश के महल की तरह है । हर बार बमुश्किल से सर उठाकर देखने को मन करता है, और हर बार ताश के ढहते महल के एहसास के साथ झुक जाता है । इस टूटन का क्या जवाब दें । जो सबसे सीधा और सहज लगता था, वही छलावे का पर्यायी बन गया है । एक चारित्रिक भूख मानव मन की प्रवृत्ति होती है । ऐसा टिकाव जिसके साथ मन जीना सीख लेता है । इस दुनिया के बाजार में जहाँ तरह तरह के इंसानों से पाला पड़ता है, वहाँ इस तरह की छीजन हो जाती है कि मन एकदम भूख से बिलबिला जाता है । यह भूख जो कि अपने मन को सहज रखने की चाहत से जुड़ी है । वह भूख सिर्फ जीवनसाथी के साथ ही शांत होती है । इसका क्या कारण है ? वह इसलिए कि सहवास के उत्तरार्ध में जो निश्छल मन में दोलन होता है, वह मोक्षदायी होता है । इसलिए इससे भावनाओं का पोषण होता चला जाता है । इस पोषण से ही मन सबल होता है, तथा बाहरी दुनियाँ के छीजन को झेलने की क्षमता भी बनती है ।
मानव का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तब है जब उसका जीवन साथी ही छीजन का स्त्रोत बन जाता है । तब जो क्षति जीवन में होती है उसका अंदाजा लगाना ही मुश्किल है । अनेक दुर्बलताओं को निमंत्रण मिलजाता है । और यदि मानव मुमुक्षु भी हो जाए तो गलत नहीं । ऐसा दुर्भाग्य आखिर क्यों । इस जीवन की गति सभी को पता है । मृत्यु का ही एक रास्ता है फिर भी जीवन के इस दयनीय पक्ष की हत्या क्यों ? आज के दिन इस दुर्भाग्य को देखता हूँ तो मन कुम्हलाकर मृतप्राय होने लगता है ।

Sunday, November 06, 2011

आत्मन् व विज्ञान के संबंध

आज एक संगोष्ठी जिसका विषय विज्ञान व आत्मन् था, उसमें कुछ रोचक उद्बोधन सुनने को मिले । मुख्य तर्क यही था कि मनुष्य की जीवन की घड़ी जो कि विज्ञान ने काफी कुछ समझा दी है, उसमें अब सबसे अज्ञात कोई तत्व है तो वह आत्मन् का बोध । आत्मन् एक ऐसी तंत्र की पहचान है जो कि मस्तिष्क के विकास के लिए जिम्मेदार है । यानि पदार्थ का संगठित होना आत्मन् का ही एक परियोजन है । इसके बाद कई जीव विज्ञान के उदाहरणों से समझाया गया कि किस प्रकार क्रमिक विकास की अवधारणा अपने आप में दोषपूर्ण है । इस प्रकार कई तर्कों के द्वारा यह बताने का प्रयास किया गया कि अंततोगत्वा यह चेतना ही है जो सब परम ब्रह्म से मानव को जोड़ती है । और इसकी शुद्धिकरण के लिए सात्विक जीवन को अनिवार्य माना गया है । ये जितने भी दावे थे उनके गर्भ में एक तर्क को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था कि विज्ञान अब सीमा को छू रहा है । अब जितने भी ज्ञान के वैज्ञानिक स्त्रोत हैं वह खाली हो चुके हैं । अब सिर्फ चेतना के सहारे ही चीजों को जाना सकता है । यह चेतना भविष्य की बोधगामी है तथा इस चेतना के सहारे मनुष्य आभासीय ज्ञान को प्राप्त कर सकता है । ये सब सुनने के बाद लगा कि ये सारी बातें मेरे मन को अच्छी तो लगीं पर ग्रहण करने योग्य एक भी नहीं । उसका कारण था कि ये मेरे काम की नहीं थीं । मेरा सारा ध्यान इस बात की ओर था कि क्या ये मुझे मेरी चुनौतियों को हल करने में सहायता करती हैं, तो उत्तर है नहीं । मेरा आज सबसे बड़ा सवाल यह था कि माया के सभी रूप मनुष्य के कष्टों का कारण नहीं हैं । वह इसलिए कि मनुष्य मूल रूप से माया का गुलाम नहीं होता है । मनुष्य माया के जाल में तब फँसता है जब वब मानव संबंधों में विफल होता है । उस विफलता को उलटने के लिए वह पदार्थों से संबंधों को निर्मित करता है उनपर नियंत्रण कर फिर मानव संबंधों पर अपने आप को आजमाता है और इस प्रकार सफलता विफलता के चक्कर से मायाजाल में फँसता चला जाता है । इसका विकल्प संबंधों का न हो नहीं है , खास करके उसके लिए जो सांसारिक है । इसके लिए जरूरी है उन्हीं मानव संबंधों को जो उसकी विफलता का कारण हैं उन्हें सुधारा जाए । संबंधों का विज्ञान व आत्मन् दोनों ही आज मानव के पास नहीं है । ऐसे ज्ञान की जरूरत है जो विज्ञान व आत्मन् से परे मानव संबंधों की गुत्थी सुलझा सकने में मददगार हो । यदि ऐसा नहीं है तो साधु और गृहस्थ कितना ही जोर लगा लें वे कष्टों के लिए सिर्फ नई अफीम ही तैयार कर सकते हैं कष्ट का निवारण नहीं ।

Friday, October 21, 2011

जीवन के सफर से नाता

समय का आभास शायद आयु की सही पहचान है । दो अनुभव मैनें महसूस किए हैं, पहला कि समय का आभास अवधि के रूप में होने लगा है । किसी घटना के, या किसी अहसास के आदि और अंत को एक साथ मन में चित्रित कर पाने लगा हूँ । ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ है । इसलिए कभी कभी एक दशक की तस्वीर मन में सामने आजाती है । बड़ा आश्चर्य होता है । बचपन में जब खेलते थे, तो अकसर माँ से डाँट पड़ती थी कि कब से खेल रहे हो, समयावधि का ध्यान ही नहीं रहता है । तब मुझे लगता था कि समयावधि का किसी को कैसे पता चल सकता है, क्योंकि जो गतिविधि करते थे । वह सारा ध्यान तो खींच लेती थी । इसलिए शायद उन दिनों में घड़ी का मोल भी पता रहता था । हालाँकि वो एक चिंता का ही स्त्रोत ही होती थी । दुसरा आभास यह है कि समय जो कि वर्तमान व बीते अतीत का दस्तावेज है, अब स्वयं के अस्तित्व से जुड़ा न रह कर सामने पड़ने वाले अगले कदम के रूप में दिखाई देने लगा है । शायद ये कि अब क्या होना चाहिए अब आपके विवेक की सामग्री नहीं रह गई है । बल्कि वह समय एक चलचित्र की भाँति आपको आगे के दृश्य से अवगत कराती है जिसे आपके स्वीकारने के सिवाय कोई चारा नहीं है । इन दोनो अहसास से जीवन एक अलमारी में रखी किताब की तरह लगने लगी है । जिस पर धूल जमने का खतरा बढ़ने लगा है । यह किताब जो कि कभी दिल पर रखकर मन सोता था अब शांत है । तब एक और अहसास मन में होने लगता है कि दरअसल जीवन में समय का बोध इंसान की फितरत नहीं है । इंसान की सबसे बड़ी फितरत है रिश्तेनाते । इंसान का समय इन्हीं में सिमटा हुआ है । और जब रिश्तेनाते टूटने लगते हैं । तब समय हावी हो जाता है । और फिर उसके इर्दगिर्द जीवन को जीने की मजबूरी के सिवाय कोई और चारा नहीं है । इसलिए जीने के लिए समय न ढूंढो, रिश्ते ढूंढो । शायद पश्चिम में इस जरूरत को महसूस किया जा रहा है । हम लोग जो मध्यवर्ग की मानसिक दरिद्रता और भौतिकता के गुलाम इस वेदना को शायद और ज्यादा भोगने वाले हैं । यह जंजीर कभी तो तोड़नी पड़ेगी । समय की जंजीरें ।