Saturday, December 04, 2010

कूएँ में झाकने को मन

मैं जब छोटा था तब एक चीज का खौफ हमेशा मेरे मन में बैठा रखा था । यह था कि कूएँ के पास कभी नहीं जाना है । इसका विशेष प्रभाव मेरे मन पर था ।शायद इसलिए कि ननिहाल में एकआध बार ऐसा हुआ है कि कोई नवविवाहिता के कूएँ में कूदने कि घटना ने मेरे मन पटल पर एक अमिट भाव छोड़ दिया । परंतु उसने ऐसा क्यों किया । यही कूआँ जो कि उसके शादी होकर आने के बाद घर की सभी महिलाओं ने मिलकर पूजा होगा । उसने इसे अपने अंत का साधन क्यों चुना । पर जब थोड़ा बड़ा हुआ या कहिए कि घरवालों के विश्वास करने लायक हुआ, तब मैने कूएं में झाँककर देखा । ऐसा लगा कि मन के बड़े भय पर विजय पा ली । फिर दोबारा झाँककर देखा, तो उसके पानी को भी देखा । तीसरी बार झाँककर देखा तो आवाज लगाई, उसके पलट कर आने को सुना । यह कूआँ तो मेरे बारे में ही बताता है । मन को जानने का सबसे सही तरीका है, उससे कूएँ में झाँककर कर बात करो । जी मैं कोई मूर्खतापूर्ण बात नहीं कर रहा, यह कूआँ है जीवन का सार । इसे गीता के सार में भी पाया जाता है, परंतु मेरा मानना है कि यह सार हर आत्मा वाले जीव में होता है । कुछ भूल जाते हैं तो ज्ञान के स्रोतों से सीखते हैं । पर कुछ ऐसे भी हैं जो साधन में ही सुखानुभूति प्राप्त करते हैं । ऐसे लोगों के लिए कृष्ण स्थैतथ्य को दर्शाता है । कृष्ण का आत्म में निवास को जभी समझा जा सकता है जब मन से भय को दूर किया जाये और कूएँ में झाँकने को मन हो जावे । बचपन में यह सरल रहा अब तो सवाल है कि कूएँ में झाँकने का क्या फायदा, इसलिए औरों को भी मना करते हैं । सांसारिकता हावी हो जाती है कूएँ के खतरे ज्यादा बड़े हो जाते हैं । फिर भी जो बचपन में इस भय को निकाल पाया उसे कृष्ण का सामीप्य मिला है । यह सिर्फ झाँकने वाला ही जानता है ।