Sunday, November 06, 2011

आत्मन् व विज्ञान के संबंध

आज एक संगोष्ठी जिसका विषय विज्ञान व आत्मन् था, उसमें कुछ रोचक उद्बोधन सुनने को मिले । मुख्य तर्क यही था कि मनुष्य की जीवन की घड़ी जो कि विज्ञान ने काफी कुछ समझा दी है, उसमें अब सबसे अज्ञात कोई तत्व है तो वह आत्मन् का बोध । आत्मन् एक ऐसी तंत्र की पहचान है जो कि मस्तिष्क के विकास के लिए जिम्मेदार है । यानि पदार्थ का संगठित होना आत्मन् का ही एक परियोजन है । इसके बाद कई जीव विज्ञान के उदाहरणों से समझाया गया कि किस प्रकार क्रमिक विकास की अवधारणा अपने आप में दोषपूर्ण है । इस प्रकार कई तर्कों के द्वारा यह बताने का प्रयास किया गया कि अंततोगत्वा यह चेतना ही है जो सब परम ब्रह्म से मानव को जोड़ती है । और इसकी शुद्धिकरण के लिए सात्विक जीवन को अनिवार्य माना गया है । ये जितने भी दावे थे उनके गर्भ में एक तर्क को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था कि विज्ञान अब सीमा को छू रहा है । अब जितने भी ज्ञान के वैज्ञानिक स्त्रोत हैं वह खाली हो चुके हैं । अब सिर्फ चेतना के सहारे ही चीजों को जाना सकता है । यह चेतना भविष्य की बोधगामी है तथा इस चेतना के सहारे मनुष्य आभासीय ज्ञान को प्राप्त कर सकता है । ये सब सुनने के बाद लगा कि ये सारी बातें मेरे मन को अच्छी तो लगीं पर ग्रहण करने योग्य एक भी नहीं । उसका कारण था कि ये मेरे काम की नहीं थीं । मेरा सारा ध्यान इस बात की ओर था कि क्या ये मुझे मेरी चुनौतियों को हल करने में सहायता करती हैं, तो उत्तर है नहीं । मेरा आज सबसे बड़ा सवाल यह था कि माया के सभी रूप मनुष्य के कष्टों का कारण नहीं हैं । वह इसलिए कि मनुष्य मूल रूप से माया का गुलाम नहीं होता है । मनुष्य माया के जाल में तब फँसता है जब वब मानव संबंधों में विफल होता है । उस विफलता को उलटने के लिए वह पदार्थों से संबंधों को निर्मित करता है उनपर नियंत्रण कर फिर मानव संबंधों पर अपने आप को आजमाता है और इस प्रकार सफलता विफलता के चक्कर से मायाजाल में फँसता चला जाता है । इसका विकल्प संबंधों का न हो नहीं है , खास करके उसके लिए जो सांसारिक है । इसके लिए जरूरी है उन्हीं मानव संबंधों को जो उसकी विफलता का कारण हैं उन्हें सुधारा जाए । संबंधों का विज्ञान व आत्मन् दोनों ही आज मानव के पास नहीं है । ऐसे ज्ञान की जरूरत है जो विज्ञान व आत्मन् से परे मानव संबंधों की गुत्थी सुलझा सकने में मददगार हो । यदि ऐसा नहीं है तो साधु और गृहस्थ कितना ही जोर लगा लें वे कष्टों के लिए सिर्फ नई अफीम ही तैयार कर सकते हैं कष्ट का निवारण नहीं ।

Friday, October 21, 2011

जीवन के सफर से नाता

समय का आभास शायद आयु की सही पहचान है । दो अनुभव मैनें महसूस किए हैं, पहला कि समय का आभास अवधि के रूप में होने लगा है । किसी घटना के, या किसी अहसास के आदि और अंत को एक साथ मन में चित्रित कर पाने लगा हूँ । ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ है । इसलिए कभी कभी एक दशक की तस्वीर मन में सामने आजाती है । बड़ा आश्चर्य होता है । बचपन में जब खेलते थे, तो अकसर माँ से डाँट पड़ती थी कि कब से खेल रहे हो, समयावधि का ध्यान ही नहीं रहता है । तब मुझे लगता था कि समयावधि का किसी को कैसे पता चल सकता है, क्योंकि जो गतिविधि करते थे । वह सारा ध्यान तो खींच लेती थी । इसलिए शायद उन दिनों में घड़ी का मोल भी पता रहता था । हालाँकि वो एक चिंता का ही स्त्रोत ही होती थी । दुसरा आभास यह है कि समय जो कि वर्तमान व बीते अतीत का दस्तावेज है, अब स्वयं के अस्तित्व से जुड़ा न रह कर सामने पड़ने वाले अगले कदम के रूप में दिखाई देने लगा है । शायद ये कि अब क्या होना चाहिए अब आपके विवेक की सामग्री नहीं रह गई है । बल्कि वह समय एक चलचित्र की भाँति आपको आगे के दृश्य से अवगत कराती है जिसे आपके स्वीकारने के सिवाय कोई चारा नहीं है । इन दोनो अहसास से जीवन एक अलमारी में रखी किताब की तरह लगने लगी है । जिस पर धूल जमने का खतरा बढ़ने लगा है । यह किताब जो कि कभी दिल पर रखकर मन सोता था अब शांत है । तब एक और अहसास मन में होने लगता है कि दरअसल जीवन में समय का बोध इंसान की फितरत नहीं है । इंसान की सबसे बड़ी फितरत है रिश्तेनाते । इंसान का समय इन्हीं में सिमटा हुआ है । और जब रिश्तेनाते टूटने लगते हैं । तब समय हावी हो जाता है । और फिर उसके इर्दगिर्द जीवन को जीने की मजबूरी के सिवाय कोई और चारा नहीं है । इसलिए जीने के लिए समय न ढूंढो, रिश्ते ढूंढो । शायद पश्चिम में इस जरूरत को महसूस किया जा रहा है । हम लोग जो मध्यवर्ग की मानसिक दरिद्रता और भौतिकता के गुलाम इस वेदना को शायद और ज्यादा भोगने वाले हैं । यह जंजीर कभी तो तोड़नी पड़ेगी । समय की जंजीरें ।

Saturday, September 10, 2011

एकाकी मन के पगतले पिघलते रास्ते

तरुणाई में एक वस्तु इंसान को सदैव आवरण के रूप में ढके रहती है, प्रेम । यह वात्सल्य से आगे की सीढ़ी है । उसमें एक खिंचाव रहता है जो इंसान के व्यक्तिव का उसी प्रकार पोषण करता रहता है, जैसे शहतूत की पत्तियाँ रेशम के कीड़े की । और उसमें ज्यों ज्यों उत्कर्ष आता चला जाता है मानव उर्जा अपने चरम प्रतिमान पर होने लगती है । इस प्रेम का बड़ा ही आभासीय संदर्भ है यह निरंतर दायरे बनाता जाता है और उस दायरे में यह तरूणाई का वैसा ही प्रदर्शन करता है जैसे कि सावन के महीने में मयूर अपने पंखों की छटा बिखेर कर करता है । इस दौर में अनेक पड़ाव आते हैं कुछ तो बेहद निजि अनुभव होते हैं, प्रेम के सभी स्पर्श सिर्फ साँसों में सिमट जाते हैं । और कुछ ऐसे भी आते हैं जहाँ प्रेम एक सामाजिक प्रतिष्ठा, मान व  सुख वैभव की डोली में बैठा हुआ मिलता है । ये सभी जीवन के निजि व सामाजिक उद्वेलन हैं जो एक सिरे से दुसरे सिरे तक हिलोर खाते रहते हैं ।
लेकिन एक समय में मन में अचानक प्रेम से विमोह उत्पन्न होने लगता है । ऐसा लगता है की वह यौवन के कँगूरे जिन पर आसक्त किरणों की छटाएँ इठलाती हैं वे एकाएक आँखों को चुँधियाने लगती हैं । और ऐसा एक मन निकल पड़ता है जीवन की उन पगडंडियों पर जहाँ किसी के आवरण की चाह न हो । एक ऐसे निर्मल ओजस्वी मन से मिलने को जो स्वयं इन सामयिक संदर्भों से ऊपर उठ चुका हो । एक ऐसा मन जिससे मिल कर लगे की रास्ते स्वयं पिघलने लगे हैं । एक ऐसे मन की उड़ान जो समय की जंजीरों से न बँधे हुए हों ।