Friday, October 21, 2011

जीवन के सफर से नाता

समय का आभास शायद आयु की सही पहचान है । दो अनुभव मैनें महसूस किए हैं, पहला कि समय का आभास अवधि के रूप में होने लगा है । किसी घटना के, या किसी अहसास के आदि और अंत को एक साथ मन में चित्रित कर पाने लगा हूँ । ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ है । इसलिए कभी कभी एक दशक की तस्वीर मन में सामने आजाती है । बड़ा आश्चर्य होता है । बचपन में जब खेलते थे, तो अकसर माँ से डाँट पड़ती थी कि कब से खेल रहे हो, समयावधि का ध्यान ही नहीं रहता है । तब मुझे लगता था कि समयावधि का किसी को कैसे पता चल सकता है, क्योंकि जो गतिविधि करते थे । वह सारा ध्यान तो खींच लेती थी । इसलिए शायद उन दिनों में घड़ी का मोल भी पता रहता था । हालाँकि वो एक चिंता का ही स्त्रोत ही होती थी । दुसरा आभास यह है कि समय जो कि वर्तमान व बीते अतीत का दस्तावेज है, अब स्वयं के अस्तित्व से जुड़ा न रह कर सामने पड़ने वाले अगले कदम के रूप में दिखाई देने लगा है । शायद ये कि अब क्या होना चाहिए अब आपके विवेक की सामग्री नहीं रह गई है । बल्कि वह समय एक चलचित्र की भाँति आपको आगे के दृश्य से अवगत कराती है जिसे आपके स्वीकारने के सिवाय कोई चारा नहीं है । इन दोनो अहसास से जीवन एक अलमारी में रखी किताब की तरह लगने लगी है । जिस पर धूल जमने का खतरा बढ़ने लगा है । यह किताब जो कि कभी दिल पर रखकर मन सोता था अब शांत है । तब एक और अहसास मन में होने लगता है कि दरअसल जीवन में समय का बोध इंसान की फितरत नहीं है । इंसान की सबसे बड़ी फितरत है रिश्तेनाते । इंसान का समय इन्हीं में सिमटा हुआ है । और जब रिश्तेनाते टूटने लगते हैं । तब समय हावी हो जाता है । और फिर उसके इर्दगिर्द जीवन को जीने की मजबूरी के सिवाय कोई और चारा नहीं है । इसलिए जीने के लिए समय न ढूंढो, रिश्ते ढूंढो । शायद पश्चिम में इस जरूरत को महसूस किया जा रहा है । हम लोग जो मध्यवर्ग की मानसिक दरिद्रता और भौतिकता के गुलाम इस वेदना को शायद और ज्यादा भोगने वाले हैं । यह जंजीर कभी तो तोड़नी पड़ेगी । समय की जंजीरें ।

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