Sunday, November 21, 2010

क्या संवाद करूँ

नये विचारों के नितांत अभाव में ऐसा लगता है कि दंतमंजन के बिना ही चाय पी लीने की इच्छा हो आई है । ऐसा कभी कभी होता है कि पुराने ख्यालों की छाया में थोड़ी देर रह कर सुरक्षित महसूस किया जा सकता है । पर चाय की चुस्की कितनी देर साथ निभाती है । हर घूँट के साथ उसके खत्म होने का एहसास बढ़ने लगता है । और फिर तो मानो बेचैनी बढ़ती चली जाती है कि उसका नाम बदनाम न किया जाये तो दूसरे प्याले के लिए गुहार कैसे हो । बस एक कप और मिले, वो पहली तो सिर्फ हलक में ही रह गई । ऐसे न जाने कितने प्यालों के साथ एहसान फरामोशी करने पर जिंदगी के ईमान टिके हुए हैं । बस लगता है सारे जमाने ने जो बेरुखी दिखाई है, उसका बदला इस चाय के कप से एक एक घूँट के हिसाब से लूँगा । अपने को सिकोड़ कर जीवन के विस्तृत संवाद को झेलने की विशेष उर्जा इस चाय के कप से ही मिलती है । ऐसा लगता है कि इस अमृत से ही सारे आभास जुड़े हुए हैं, बाकि सभी तो सिर्फ औरों की प्रभुसत्ता के साधन हैं । जिनका इस्तमाल वे न सिर्फ एक छोटे कप को अपनी हैसियत का एहसास कराने के लिए करते हैं बल्कि इस कप पर किसी की टिकी आस्था को चोट पहुँचाने के लिए भी करते हैं । चाय का कप पीने वाले के लिए निजी नैतिकता का दायरा है, जिसमें वो इससे अपने मन के निर्बाध प्रवाह के लिए स्वाधिकृत है । उसे लगता है कि इस उद्वेलन में यदि कोई खलल डालता है तो वह उसकी मौलिक स्वतंत्रता का हनन है । जब इतना संसर्ग हो जाये तब लगता है कि जीवन किसी और के लिए कुछ बेहतर करने योग्य बन गया है । चाय के इस आत्मप्राण के बिना मनुष्य सिर्फ चीनी मिट्टी का कप है ।