Saturday, March 27, 2010

जब नब्ज धीमी पड़ने लगती है

सभी के जीवन में जाने का ख्याल एक बार ऐसे मौके पर आता है, जब घर में कोई चहेता इस दुनियाँ से चला गया हो । अब शोक मना चुके हैं, हकीकत यही है कि एक दिन खुद को भी जाना पड़ेगा । तब भी यह लगता है कि आखिर सच कहाँ है, जाने में या जाने के अहसास में । किसे अहमीयत दें । जाना होगा पर उस जाने में अभी वक्त है । तब इस वक्त को कैसे समझें । क्या इसमें पाया है, उसको देखें या क्या उसमें खोया है, उसे देखें । ऐसे में एक मोड़ ऐसा भी आता है, कि कुझ फैसले सही या गलत साबित होते हैं । पर जब उसे जाने की कसौटी पर रख कर देखते हैं, तो लगता है कि सही कुछ सही कम है और गलत इतना भी गलत नहीं है । फिर जीवन में आखिर इंसान किस पर अपना फैसला टिकाए । मोल का तोल नहीं है और तोल का सही मोल नहीं है । तब लगता है कि इस गफलत से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है । वो है रास्ता प्यार का, दूसरे पर विश्वास का । भय से मुक्ति का, आनंद से सिर उसकी गोद में रख कर सोने का । तब ही कह सकता हूँ कि हाँ जब जाना ही है तो किसी के जीवन से होकर गुजरो । उसके जीवन से जो तुम्हारे जीवन में जाने के अहसास को इतना कमतर बना दे कि तुम्हें पता ही न चले कि कब जाने का समय हो गया । और जब वक्त आ जाये तो ऐसे जाओ कि किसी की आँख में आँसू न हों । सभी इस बात को स्वीकार कर लें कि मुझे जाना ही है और मैं सही समय पर जा रहा हूँ ।
पर इस सब के लिए क्या सबसे जरूरी है । सबसे जरूरी है, अंदर का हौसला, जो तुम्हें इसी समय से यह अहसास कराती रहे कि जब तक नब्ज है, हौसला कम न हो, वर्ना यह धीमी पड़नी शुरु हो जायेगी ।