Monday, December 24, 2012

सजनी- एक प्रेम गीत

क्या देख रही हो सजनी,
कि प्रेम कितना गहरा है मेरा ।
क्या मन में चल रहा है सजनी,
कि प्रेम कितना गहरा है मेरा ।
क्या दिल में बसा है सजनी,
कि प्रेम कितना गहरा है मेरा ।

जब तुम्हारी आखों में आँखें डालकर देखता हूं, सजनी,
सागर की सारी लहरें आरपार हो जाती हैं ।
जब तुम्हारे चिबुक को एकटक देखता हूं, सजनी,
जीवन के सारे रसों का आनंद भर आता है ।
जब तुम्हारे केशों को देखता हूं, सजनी,
उन की छाया में मन इंद्रजीत हो जाता है ।
प्यार ही प्यार भरा है तुम्हारे उरोजों में, सजनी,
उनके तले जीवन में निश्चिंत भाव से सुःखनिद्रा में,
सो जाने को मन करता है ।
हर पल जीवंतता का एहसास तुम्हारे ख्याल से बना रहता है, सजनी ।
सजनी, मेरी सजनी, क्या मेरे मन की बात तुम तक पहुंच रही है ।

Monday, December 10, 2012

दो पात पर

जीवन में चींटी के अनेक उदाहरण पेश किए जाते हैं कि देखो उससे सीखो, वह हिम्मत नहीं हारती है । उसका जीवन सारा समर्पण भाव को दर्शाता है । पर एक दिन मैने यूं ही घर के पास से बहने वाले पानी की ओर रुख किया । उसकी ध्वनि मुझे आकर्षित कर रही थी। मैं क्या देखता हूं कि एक चींटी जैसे तैसे एक पत्ते पर चढ़ी हुई चारों ओऱ से निकलने के रास्ते खोज रही थी । उसकी जान तो पत्ते पर बच गई थीं, पर उसका उद्देश्य इससे आगे जमीन पर आना था ताकि वो जीवन के पथ पर आगे बढ़ सके । ये देख कर मैं भी रुक गया कि देखें वह आगे क्या करती है । मैने देखा कि पास ही से एक दूसरा पत्ता बहता हुआ आया और उस चींटी के पत्ते के साथ अटक गया । चींटी लपक कर आगे बढ़ी और उस पत्ते की ओर जाने लगी । वो पत्ता किनारे को कुछ पास ले आया था । चींटी ने शायद आगे के दोनो पैर भी उस पत्ते पर रख दिए थे । परंतु सहसा वह पीछे की ओर हट गई और फिर से पहले पत्ते पर से निकलने के रास्तों के लिए मुआयना करने लगी । मैं सोचने लगा कि उसने क्यों नहीं उस पत्ते को छोड़ा । आखिर दूसरा पत्ता ज्यादा बड़ा औऱ किनारे नजदीक था । और हो ना हो वह जरुर किसी किनारे लगता । तभी देखा कि पहला पत्ता छिटक कर हट गया औऱ पानी में उलटा हो गया । चींटी पानी में तैर रही थी औऱ उसके पास बचने के लिए कोई उपाय न था । मुझे लगा कि जीवन की लाचारी इससे ज्यादा औऱ कुछ ना हो सकती कि आपके पास मौका हो औऱ आप उसे जाने दो । शायद ऐसे मे चींटी का डूब जाना मात्र नियति भर ही थी । कभी कभी हमे लगता है कि एक अवसर ऐसा है कि शायद जिसका हम जीवन भर से इंतजार कर रहे हैं । औऱ जब वह सामने होता है तब एकदम से विमोह की स्थिति हो जाती है । लगता है कि ये अब मेरे जीवन में सरोकार नहीं रख रही है । औऱ मन दुःखी तो होता ही है पर सबसे बड़ी पीड़ा इस बोध से होती है कि जीवन का निर्बाध बहना अवसरों के महत्व का आधार है ना कि अवसरों का होना । यदि आपको किसी वस्तु की मांग है औऱ वह नहीं है तो उसके विकल्प ही सबसे बेहतर अवसर हैं । जो समय के साथ मिल गया उसे भाग्यशाली होने का प्रमाण माना जाए । जीवन में अनेकों ऐसे अवसरों पर प्रयास का महत्व बढ़ जाता है । पर प्रयास तो अवसरों का मुआयना मात्र ही है । प्रयास से अवसरों का हासिल होना जुड़ा नहीं है । वो तो जभी छलांग लगाई जा सकती है जब जीवन में कोई दैवीय हाथ मदद के लिए आगे बढ़ा हो । और फिर उस डूबती चींटी को मैंने दूसरे पत्ते के सहारे पानी से बाहर निकालकर रख दिया ।

Sunday, December 02, 2012

तंग इंसान की खुली खिड़की से दिखता आसमान

मन भी विचित्र है । जहाँ तरह तरह के रंग दिखाई देते हैं तो काले रंग की खूबसूरती का बखान करने लगता है । जब काले रंग से रूबरू होता है तो सफेद रंग के साये तले अपने वजूद की दलील देने लगता है । और जब सफेद रंग के साये मे झलकता है तब उसे रंगों की तलब हो उठती है । क्या करें इस मन का । कोई इसे भी समझे । क्यों हम पानी भरे गुब्बारे की तरह हाथों से सरकना चाहते हैं और ये भी लगता है कि कहीं से पकड़ ढीली ना हो जाए क्योंकि जमीन पर गिरते ही मालूम है कि क्या हाल होने वाला है । इस पानी के गुब्बारे सा मन का नाजुकपन क्या कहना चाहता है । हमें क्या चाहिए ? हमें ऐसे दो हाथ चाहिए जो साथ जुड़कर दोने (टोकरी ) की तरह हों और जिसमें मन का गुब्बारा हिलता डुलता रहे बेफिकर । इतनी सुरक्षा भरे हाथ कहाँ मिलें । और जो जीवन के बोध में ही अबोधता का भाव डाल दें । इस हद तक डाल दें इसके वजूद की एहसास सिर्फ उसके हिलने डुलने मे ही रहे ना कि गुब्बारे बने रहने में । ये सारी बातें एक उदारणार्थ नहीं कही जा रही हैं । जीवन का निरंतर बहते रहना उसके स्त्रोत की ओर ध्यान खींचता है औऱ फिर उसके अंत की ओर । ये आरंभ और अंत का साम्यक बोध वर्तमान के संघर्षों को भी जटिल बना देता है । मानव जीवन ऐसे मे क्या ढूंढता है एक ऐसी संजीवनी बूटी जो उसके इस कष्ट को हर ले । क्या वाकई कोई ऐसी बूटी है । मेरा बार बार सहज उत्तर होता है यदि प्रेम की ताकत भी इस चुनौती को नहीं ले सकती है तो जीवन में और क्या है । लगता है प्रेम का पलड़ा पहली बार हलका पड़ने लगा है । तो क्या इसका उत्तर मोक्षदायी वो सभी बातें जो धर्म पुराणों में लिखी गई हैं । क्या है इस पहली का हल । या सिर्फ मृत्युबोध के साथ शुतुर्मुर्ग की तरह हम सब जाने का इंतजार कर रहे हैं । अरे नहीं ये तो बहुत बड़ी त्रासदी होगी मानव जीवन के साथ जो ब्रह्मांड में जीवन और चेतना का सिर्फ एक मात्र साक्षी है । ये श्रेय तो हम तो बाकि प्रकृति को भी नहीं दे सकते । तो फिर क्या है जो जीवन में जीवन का आधार है वरना तो कबीर की धोकनी से ज्यादा हम कुछ भी नहीं है । कमल की पत्तियाँ बंद होने लगती हैं और भँवरा उसमें सो जाता है । ऐसा लगता है कि जीवन के नियम में नियति भी निहित होती है । तो फिर क्या किया जा सकता है, एक मौलिक परिवर्तन की जरूरत है । जिस चीज से सबसे ज्यादा खुशी मिलती है, और जो सबसे सामयिक खुशी का कारण है उसे उस समय का नियम बना लो । बस उसे आदत बना डालो । उसे रोज करो बार बार करो । पूरी निर्भीकता से साथ करो । और इतना करो कि खुशी के आंसू मन मे छलक आएं । आपको मेरा प्यार !