तरुणाई में एक वस्तु इंसान को सदैव आवरण के रूप में ढके रहती है, प्रेम । यह वात्सल्य से आगे की सीढ़ी है । उसमें एक खिंचाव रहता है जो इंसान के व्यक्तिव का उसी प्रकार पोषण करता रहता है, जैसे शहतूत की पत्तियाँ रेशम के कीड़े की । और उसमें ज्यों ज्यों उत्कर्ष आता चला जाता है मानव उर्जा अपने चरम प्रतिमान पर होने लगती है । इस प्रेम का बड़ा ही आभासीय संदर्भ है यह निरंतर दायरे बनाता जाता है और उस दायरे में यह तरूणाई का वैसा ही प्रदर्शन करता है जैसे कि सावन के महीने में मयूर अपने पंखों की छटा बिखेर कर करता है । इस दौर में अनेक पड़ाव आते हैं कुछ तो बेहद निजि अनुभव होते हैं, प्रेम के सभी स्पर्श सिर्फ साँसों में सिमट जाते हैं । और कुछ ऐसे भी आते हैं जहाँ प्रेम एक सामाजिक प्रतिष्ठा, मान व सुख वैभव की डोली में बैठा हुआ मिलता है । ये सभी जीवन के निजि व सामाजिक उद्वेलन हैं जो एक सिरे से दुसरे सिरे तक हिलोर खाते रहते हैं ।
लेकिन एक समय में मन में अचानक प्रेम से विमोह उत्पन्न होने लगता है । ऐसा लगता है की वह यौवन के कँगूरे जिन पर आसक्त किरणों की छटाएँ इठलाती हैं वे एकाएक आँखों को चुँधियाने लगती हैं । और ऐसा एक मन निकल पड़ता है जीवन की उन पगडंडियों पर जहाँ किसी के आवरण की चाह न हो । एक ऐसे निर्मल ओजस्वी मन से मिलने को जो स्वयं इन सामयिक संदर्भों से ऊपर उठ चुका हो । एक ऐसा मन जिससे मिल कर लगे की रास्ते स्वयं पिघलने लगे हैं । एक ऐसे मन की उड़ान जो समय की जंजीरों से न बँधे हुए हों ।
लेकिन एक समय में मन में अचानक प्रेम से विमोह उत्पन्न होने लगता है । ऐसा लगता है की वह यौवन के कँगूरे जिन पर आसक्त किरणों की छटाएँ इठलाती हैं वे एकाएक आँखों को चुँधियाने लगती हैं । और ऐसा एक मन निकल पड़ता है जीवन की उन पगडंडियों पर जहाँ किसी के आवरण की चाह न हो । एक ऐसे निर्मल ओजस्वी मन से मिलने को जो स्वयं इन सामयिक संदर्भों से ऊपर उठ चुका हो । एक ऐसा मन जिससे मिल कर लगे की रास्ते स्वयं पिघलने लगे हैं । एक ऐसे मन की उड़ान जो समय की जंजीरों से न बँधे हुए हों ।